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Research Meaning, Definition, Objectives शोध अर्थ, परिभाषा, उद्देश्य एवं महत्व mass communcation notes

Research Meaning, Definition, Objectives and Importance


Research Meaning, Definition, Objectives and Importance
Research Meaning, Definition, Objectives and Importance

Research Meaning, Definition, Objectives शोध अर्थ, परिभाषा, उद्देश्य एवं महत्व पत्रकारिता एवं जनसंचार नोट्स व अध्ययन सामग्री mass communcation and journalism notes and study material.


Meaning of Research शोध का अर्थ

शोध या अनुसन्धान को अंग्रेजी में रिसर्च (Research) कहा जाता हैं। रिसर्च में 'रि' शब्दांश आवृत्ति और गहनता का द्योतक है, जबकि 'सर्च' शब्दांश खोज का समानार्थी है। इस प्रकार 'रिसर्च' का अर्थ हुआ - प्रदत्तों की आवृत्त्यात्मक और गहन खोज। दूसरे शब्दों में, प्रदत्तों की तह में बैठकर कुछ निष्कर्ष निकालना, नए सिद्धान्तों की खोज करना और उन प्रदत्तों का स्पष्टीकरण करना “रिसर्च' की प्रक्रिया के अन्तर्गत आते हैं।

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शोध की आवश्यकता

अनुसन्धान विभिन्‍न प्रकार की समस्याओं के समाधान खोजने की एक सुनियोजित एवं वैज्ञानिक विधि है। इसके अन्तर्गत सम्बन्धित समस्या के विभिन्‍न पक्षों के विषय में अनेक प्रकार की सामग्री (Data) एकत्र करके तथा उसका विधिपूर्वक विश्लेषण करके समस्या का समाधान प्राप्त करने का प्रयास किया जाता है, जैसे - बालक झूठ क्यों बोलते हैं, विद्यार्थी परीक्षाओं में असफल क्यों होते हैं आदि? ज्ञान के प्रत्येक क्षेत्र में ऐसी अनेक समस्याएँ सदैव उत्पन्न होती रहती हैं, ऐसे प्रश्न बराबर उभरते रहते हैं, जिनके उत्तर उपलब्ध नहीं होते। इन समस्याओं के समाधान एवं इन अनुत्तरित प्रश्नों के विश्वसनीय एवं वैध उत्तर प्राप्त करने की विधि ही अनुसन्धान है।




Definition of Research शोध की परिभाषा

डब्ल्यूएस मुनरों के अनुसार, "अनुसन्धान उन समस्याओं के अध्ययन की एक विधि है, जिसका अपूर्ण अथवा पुर्ण समाधान तथ्यों के आधार पर ढूंढना है। अनुसन्धान के लिए तथ्य, लोगों के मतों के कथन, ऐतिहासिक तथ्य लेख अथवा अभिलेखों के परखने से प्राप्त फल, प्रश्नावली के उत्तर अथवा प्रयोगों से प्राप्त सामग्री हो सकती है।''

पीएम कुक के अनुसार, “अनुसन्धान एक ऐसा निरपेक्ष, व्यापक तथा बौद्धिक अन्वेषण है, जिसमें एक दी गई समस्या से सम्बन्धित तथ्यों तथा उनमें अर्थों अथवा सम्बन्धों का अध्ययन किया जाता है।”

सीसी क्रोफोर्ड के अनुसार, “अनुसन्धान चिन्तन की एक ऐसी क्रमबद्ध तथा विशुद्ध प्रविधि है, जिसमें विशिष्ट यन्त्रों, उपकरणों तथा प्रक्रियाओं का उपयोग इस उद्देश्य से किया जाता है, ताकि एक समस्या का अधिक समुचित समाधान उपलब्ध हो सके।”

जेडब्ल्यू वेस्ट के अनुसार, “अनुसन्धान से अधिकतर विवेचन की वैज्ञानिक पंद्धति के उपयोग के नियमबद्ध, क्रमबद्ध तथा गहन प्रक्रम का पता लगता है। इसमें अन्वेषण के लिए एक अधिक व्यवस्थित संरचना अन्तर्निहित रहती है, जिससे उसमें अध्ययन की प्रक्रियाओं तथा परिणामों अथवा निष्कर्षों के प्रतिवेदन का सब प्रकार का नियमबद्ध अभिलेख रहता है।''

वी यंग के शब्दों में, “अनुसन्धान एक ऐसी व्यवस्थित विधि है, जिसके द्वारा नवीन तथ्यों की खोज अथवा प्राचीन तथ्यों को पुष्टि की जाती है तथा उनके उन अनुक्रमों, पारस्परिक सम्बन्धों, कारणात्मक व्याख्याओं तथा प्राकृतिक नियमों का अध्ययन करती है, जोकि प्राप्त तथ्यों को निर्धारित करते हैं।''

Objective of Research शोध के उद्देश्य

शोधों में मूलतः तीन उद्देश्य होते हैं
1. किसी समस्या का आकलन।
2. किसी तथ्य, घटना या स्थिति का वर्णन।
3. किसी तथ्य, घटना या स्थिति के निवारणार्थ व्यवस्थाएँ।

संचार शोध का महत्त्व इंगित करने हेतु समस्या के चयन के बाद प्रारम्भिक तैयारियाँ शुरू की जाती हैं। इसमें समस्या के बारे में ज्यादा -से - ज्यादा जानकारी प्राप्त करने और सूचना एकत्र करने के लिए अध्ययन के विभिन्‍न तरीके अपनाए जाते हैं।


शोध की विशेषताएँ और महत्व
1. अनुसन्धान एक उद्देश्यपूर्ण, सुब्यवस्थित बौद्धिक प्रक्रिया है, इसके द्वारा किसी सैद्धान्तिक अथवा व्यावहारिक समस्या के समाधान का प्रयास किया जाता है।

2. अनुसन्धान एक वैज्ञानिक अन्वेषण पद्धति है। इस आधार पर अनुसन्धान एक व्यवस्थित, नियन्त्रित, निरपेक्ष, वस्तुनिष्ठ, गहन तथा आनुभविक अध्ययन होता है।

3. अनुसन्धान के द्वारा या तो किसी नए तथ्य, सिद्धान्त, विधि या वस्तु की खोज की जाती है अथवा प्राचीन तथ्य, सिद्धान्त, विधि या वस्तु में परिवर्तन किया जाता है।

4. अनुसन्धान में सम्बन्धित समस्या के अध्ययन का आधार ऐसी परिकल्पना अथवा परिकल्पनात्मक तर्क वाक्य होते हैं, जिनसे कि आनुभविक तथा मात्रात्मक अध्ययन में सुविधा हो।

5. अनुसन्धान चिन्तन को एक सुव्यवस्थित एवं परिष्कृत विधि है, जिसके अन्तर्गत किसी समस्या के समाधान के लिए विशिष्ट उपकरणों एवं प्रक्रियाओं का प्रयोग होता है।

6. इसमें सम्बन्धित आंकड़ों का विश्लेषण कठोर वैज्ञानिक तथा सांख्यिकीय पद्धतियों के आधार पर किया जाता है। इस प्रकार अनुसन्धान का स्वरूप कुशल, विशिष्ट तथा वस्तुनिष्ठ होता है।

7. इसके अन्तर्गत जटिल घटनाक्रम को समझने के लिए विश्लेषण विधि का प्रयोग किया जाता है। इस विश्लेषण के लिए परिकल्पनाओं का निर्माण एवं परीक्षण किया जाता है।

8. इसमें प्राप्त परिणामों तथा सम्बन्धों की पुनरावृत्ति इस उद्देश्य से बार-बार की जाती है, ताकि सुनिश्चित तथा सुसंगत निष्कर्ष उपलब्ध हो।


शोध के कार्य

किसी भी कार्य का अस्तित्व, उसका प्रयोजन, उसकी अपेक्षाएँ ही शोध की मुख्य भूमिका होती हैं। इन शोधों में तथ्यों को वर्गीकृत कर शोधार्थी अपना कार्य आरम्भ करता है। प्रत्येक चीज को चिन्तन-मनन, निरीक्षण-परीक्षण, परिकल्पना व अनुमान के धरातल पर जाँचा-परखा जाता है। उनसे एक निष्कर्ण निकलता है। यही निष्कर्ष टेलीविजन प्रविधि की भूमिका व कार्य को स्पष्ट करता है। शोधार्थी इन तथ्यों की जाँच-पड़ताल करते पूर्ववर्ती शोधों की भूमिका व कार्य को भी महत्त्व प्रदान करता है।
टीवी और अन्य दृश्य-श्रव्य माध्यमों की भाषा क्योंकि हिन्दी है, इसीलिए भारत के बहुत भूभाग  को दूरदर्शन ने प्रभावित किया है। अपने प्रसारणों के माध्यम से उसने आज समाज प्रचलन को एक नई व्याख्या प्रदान कर एक नए सामाजिक व्यवहार, बदलाव की नींव रखी है।


संचार शोध के मूलभूत तत्त्व

1. क्या है? 2. क्यों है? 3. कैसे है? 4. क्या होगा? 5. क्या होना चाहिए?
प्रत्येक शोध विषय अलग-अलग विधाओं और शाखाओं से सम्बद्ध होने के कारण इस प्रकार के तथ्यों को उजागर करता है। उपयुक्त शोधार्थी उन अनेक तथ्यों में से विषय की उपयोगिता व प्रामाणिकता के मापदण्ड पर पूरा उतरने वाले तथ्यों को ही चयनित करता है। इसके बाद तथ्यों का विश्लेषण व व्याख्या करते हुए वह उन मूलभूत सत्यो को खोजने का उपक्रम करता है, जिनके संकेत उन तथ्यों में निहित माप होते हैं। इस पूरी प्रक्रिया में उसे अनुमान, कल्पना, तर्क, प्रयोग आदि का आश्रय लेना पड़ता है। यह सम्पूर्ण प्रक्रिया तब तक जारी रहती है, जब तक कि शोधार्थी किसी ऐसे निर्णय पर नहीं
पहुँच जाता, जो विषय के अध्ययन को आगे बढ़ाते हुए वर्तमान तथ्यों एवं ज्ञान में वृद्धि करता है। तथ्यों का वर्गीकरण, तर्कयुक्त सुव्यवस्थित मीमांसा, विश्लेषण -संश्लेषण आदि इस प्रकार के अध्ययन के अनुलक्षी तत्त्व हैं।


शोध अभिकल्प के चरण

जहाँ तक शोध अभिकल्प की रचना का सवाल है, इसमें यह कहा जाता है कि इसको अनेक चरणों से होकर गुजरना पड़ता है और इन चरणों को ही शोध का अनिवार्य अंग माना जा सकता है। इन चरणों की सहायता से एक शोध अभिकल्प का निर्माण किया जा सकता है।
इसके महत्वपूर्ण चरण निम्नलिखित हैं।

1. इसका सर्वप्रथम कार्य है अध्ययन समस्या का प्रतिपादन करना, शोध अभिकल्प का यह पहला चरण है।
2 इसका दूसरा चरण यह है कि वर्तमान में जो शोध कार्य किया जा रहा है, उसे शोध समस्या से स्पष्टत: सम्बन्धित किया जाए।
3. तीसरे चरण में यह है कि वर्तमान में जिस शोध कार्य को करना है, उसकी सीमाओं को स्पष्टत: निर्धारित किया जाए।
4. इसके चौथे चरण में यह है कि शोध के विभिन्न क्षेत्रों का विस्तृत विवरण प्रस्तुत किया जाए, अर्थात् इस चरण में शोध के भिन्न-भिन्न क्षेत्रों का पता लगाकर उसका वृहत विवरण प्रस्तुत करना होता है।
5. पाँचवें चरण में शोध के परिणामों के प्रयोग के विषय में निर्णय लिया जाता है।
6. छठा चरण यह है कि इसमें अवलोकन, विवरण तथा परिमापन के लिए उपयुक्त चरों का चयन करना चाहिए तथा इसे स्पष्ट रूप से परिभाषित करना चाहिए।
7. सातवाँ चरण यह है कि इसमें अध्ययन क्षेत्र एवं समग्र का उचित चयन होना चाहिए एवं इसे स्पष्ट रूप से परिभाषित करना चाहिए।
8. इसके आठवें चरण में यह है कि इसमें अध्ययन के प्रकार एवं विषय-क्षेत्र के विषय में विस्तार से निर्णय लिया जाना चाहिए।
9. नौवें चरण में यह है कि इसमें उपयुक्त विधियों एवं प्रविधियों का चयन किया जाना चाहिए।
10. इस चरण में अध्ययन में निहित मान्यताओं एवं प्राकल्पनाओं का स्पष्ट रूप से उल्लेख किया जाना चाहिए।
11. इसके ग्यारहवें चरण में यह है कि इसमें प्राकल्पनाओं की परिचालनात्मक परिभाषा करते हुए उसे इस रूप में प्रस्तुत करना चाहिए, कि वह परीक्षण के योग्य हो।
12. बारहवाँ चरण में शोध के दौरान प्रयुक्त किए जाने वाले प्रलेखों, रिपोर्टों एवं अन्य प्रपत्रों का अवलोकन किया जाता है। ऐसा करना एक अच्छे शोध के लिए महत्त्वपूर्ण होता है।
13. तेरहवें चरण में अध्ययन के प्रभावपूर्ण उपकरणों का चयन किया जाता है एवं इनका निर्माण कर व्यवस्थित से पहले परीक्षण किया जाता है।
14. चौदहवें चरण में ऑकड़ों के एकत्रीकरण का सम्पादन किस प्रकार किया जाएगा, इसकी विस्तृत व्यवस्था का उल्लेख किया जाता है।
15. पन्द्रहवें चरण में आँकड़ों के वर्गीकरण के लिए उच्च श्रेणियों का चयन किया जाता है एवं उनकी परिभाषा की जाती है।
16. सोलहवें चरण में यह है कि ऑकड़ों के संकेतीकरण के लिए समुचित व्यवस्था का विवरण तैयार किया जाता है।
17. सत्रहवें चरण में यह है कि इसमें ऑकड़ों को प्रयोग योग्य बनाने के लिए सम्पूर्ण प्रक्रिया की समुचित व्यवस्था का विकास किया जाता है।
18. अट्ठारहवें ऑकड़ों के गुणात्मक एव संख्यात्मक विश्लेषण के लिए विस्तृत रूप से रूपरेखा तैयार की जाती है।



प्रभाव शोध का अर्थ Meaning of Effect Research

करलिंगर के अनुसार, "प्रभाव अनुसन्धान को एक ऐसे अनुसन्धान का परिभाषा दी जाती है जिनमें स्वतन्त्र चर या एक से अधिक स्वतन्त्र चर पहले ही घटित हो चुके है और अनुसन्धानकर्ता प्रेक्षण का कार्य स्वतन्त्र चर अथवा परतन्त्र चरों से ही आरम्भ करता है। इसके पश्चात् ही वह स्वतन्त्र चरो के एक परतन्त्र चर अथवा एक से अधिक परतन्त्र चरों पर पड़ने वाले सम्भाव्य सम्बन्धों व प्रभावों का अध्ययन प्रतिगामी रूप में करता है।"

प्रभाव शोध को इस ढंग से परिभाषित किया जा सकता है कि "प्रभाव शोध एक ऐसा आनुभविक शोध होता है जिसमें शोधकर्ता चरों के बीच के सम्बन्ध के बारे में ऐसे स्वतन्त्र चरो के आधार पर अनुमान लगाता है जिसकी अभिव्यक्ति पहले ही हो चुकी होती है। इस तरह के शोघ में अनुसन्धानकर्ता का स्वतन्त्र चरों की अभिव्यक्ति पर कोई नियन्त्रण नहीं रहता है, क्योंकि वे प्रभाव दिखाने के बहुत पहले घटित हो चुके होते हैं।"
यदि इस परिभाषा का वस्तुनिष्ठ विश्लेषण करते हैं तो हम निम्नांकित निष्कर्ष पर पहुँचते हैं।

1. इस तरह के शोध में चूंकि शोधकर्ता किसी व्यवहार या घटना के प्रभाव के आधार पर उसके सम्भावित कारणों का पता लगाता है। अतः प्रभाव के आधार पर कारण के अध्ययन की यह रीति अन्य शोधों की रीति से विपरीत होता है जिनमें सामान्यतः कारण के आधार पर प्रभाव के बारे में अनुमान लगाया जाता है।

2. इस तरह के शोध में स्वतन्त्र चर की अभिव्यक्ति बहुत पहले ही हो चुकी होती है।

3. इस तरह के शोध में चूँकि स्वतन्त्र चर की अभिव्यक्ति बहुत पहले ही हो चुकी होती है, अत:
उसके जोड़-तोड़ पर शोधकर्ता का नियन्त्रण नहीं होता है।

4. प्रभाव शोध एक आनुभविक शोध है। अत: यह एक प्रकार का वैज्ञानिक शोघ होता है।


प्रभाव शोध के महत्व

यह एक कठोर वास्तविकता है कि सामाजिक तथा शैक्षिक क्षेत्रों में अधिकाश अनुसन्धान का स्वरूप घटनोत्तर अथवा प्रभाव ही होता है। इसका एक मुख्य कारण यह है कि इन क्षेत्रों की विषय-सामग्री का स्वरूप ही ऐसा है, जिसका अध्ययन प्राय: प्रभाव विधि के माध्यम से ही अधिक उपयुक्त रहता है। उदाहरणार्थ; कुछ सामाजिक घटनाएँ ऐसी होती हैं, जिसका प्रायोगिक अध्ययन प्रायः सम्भव नहीं होता; जैसे-भीड़ का व्यवहार। यह ऐसा व्यवहार है, जिसका वस्तुत: प्रयोगशाला में अध्ययन उपयुक्त नही होता, क्योंकि भीड़ के व्यवहार कृत्रिम रूप से प्रयोगशाला में पुनरावृत्ति नहीं की जा सकती और अगर की भी जाती है, वह कृत्रिम भीड़ की होगी-प्राकृतिक व स्वाभाविक भीड़ की नहीं। इस प्रकार, सामाजिक, संस्थाएँ, संरचनाएँ, नेतृत्व, व्यक्तिगत, संस्कृति, अभिवृत्ति, शैक्षिक उपलब्धि व बालक की मानसिक ग्रन्थि आदि ऐसे अनेक विषय है जिनसे प्रभाव अध्ययन ही अधिकतर उपयुक्त रहता है।

इन क्षेत्रों में प्रभाव विधि द्वारा अध्ययन का एक दूसरा आधार यह भी है कि विज्ञान की उद्देश्य केवल दो चरों के अन्तर्सम्बन्धों के विषय में केवल भविष्य कथन का ही क्षमता को प्राप्त करना नहीं है, बल्कि उनके अन्तर्सम्बन्धों का अवबोध भी एक आवश्यक तथा महत्त्वपूर्ण तत्त्व है।
उदाहरणार्थ, यदि एक अध्ययनकर्ता नगरीकरण के प्रभाव का अध्ययन मानसिक स्वास्थ्य पर करना चाहता है, तब वह यहाँ भले ही एक वास्तविक प्रायोगिक अध्ययन करने में सफल न हो, परन्तु यदि यहाँ अध्ययनकर्ता अपने प्रतिदर्श का स्वरूप यादृच्छिक रखता है और नगरीकरण व मानसिक स्वास्थ्य एक वस्तुपरक मापदण्ड प्रस्तुत है और फिर निष्पक्ष ऑकड़ों के आधार पर निष्कर्ष निकलता है, तब इस प्रकार प्राप्त निष्कर्ष भले ही उच्च वैज्ञानिक मापदण्ड पर वैध न हो, परन्तु फिर भी ऐसे प्रभाव अध्ययनों से व्यावहारिक दृष्टिकोण से महत्त्वपूर्ण तथा वैज्ञानिक स्तर की व्यापक जानकारी उपलब्ध होती है।



प्रभाव शोध के लाभ

1, प्रभाव शोध का संचालन सरल होता है, क्योंकि यहाँ शोधकर्ता को स्वतन्त्र चर में कोई जोड़-तोड़ करना सम्भव नहीं होता है।

2. कुछ विशेष परिस्थिति में जहाँ शोधकर्ता को किसी व्यवहार या घटना के प्रभाव के आधार पर उनके कारणों का अध्ययन किया जाना ही मात्र विकल्प होता है, प्रभाव शोध ही एक प्रमुख लाभदायक शोध सिद्ध होता है। ऐसी परिस्थिति में अन्य दूसरे तरह के शोध का संचालन नहीं किया जा सकता है।

3. प्रभाव शोध को व्यावहारात्मक शोधों में अधिक अहमियत प्राप्त है, क्योकि बहुत सारी परिस्थितियाँ ऐसी होती है जहाँ चरों मे जोड़-तोड करना सम्भव नहीं हो पाता है। कई समाजशास्त्रीय चर तथा शैक्षिक चर इस श्रेणी के हैं जिनमें जोड़-तोड़ करना सम्भव नहीं है फिर भी उन्हें अध्ययन करना आवश्यक है। ऐसी परिस्थिति में प्रभाव शोघ के अलावा कोई उचित विकल्प नहीं रह जाता है।

प्रभाव शोध की परिसीमाएँ

1, इस तरह के शोध में शोधकर्ता स्वतन्त्र चर तथा आश्रित चर के बीच के सम्वन्ध की उचित व्याख्या नहीं कर पाता है और वह प्राय: पोस्ट होक दोष' का शिकार हो जाता है। जिसमें शोधकर्ता दो कारक में से एक को कारण और दूसरे को प्रभाव सिर्फ इसलिए मान लेता है, क्योंकि दोनों हमेशा साथ-साथ होते पाए जाते हैं; जैसे-धूप्रपान तथा कैसर में प्राय: एक निकट सम्बन्ध होता है, इसलिए इसलिए शोधकर्ता इस निष्कर्ष पर पहुँच सकता है कि धूम्रपान कारण है, जबकि कैंसर उसका प्रभाव है, हालाँंकि यह हो सकता है कि इस तरह के व्यक्ति में कैंसर का कारण प्रन्थीय असन्तुलन या कोई अन्य कारण हो।

2. प्रभाव शोध में चूँकि शोधकर्ता स्वतन्त्र चर में जोड़-तोड़ नहीं कर पाता है, इसलिए स्वतन्त्र चर तथा आश्रित चर के प्रस्तावित सम्बन्ध के बारे में यथार्थ ढंग से किसी भी प्रकार का पूर्वानुमान लगाना एक कठिन कार्य हो जाता है।

3. प्रभाव शोध में शोधकर्ता स्वतन्त्र चर पर नियन्त्रण यदि यादृच्छिकरण के द्वारा करना चाहे, तो वह नहीं कर सकता है। इससे शोध के परिणाम पर निर्भरता स्वभावत: कम हो जाती है।


प्रभाव शोध की त्रुटियों का निराकरण

प्रभाव शोध के दोषों का उल्लेख ऊपर किया जा चुका है। इन दोषों को यथासम्भव दूर करके इसे और उपयोगी बनाया जा सकता है।
दोषों या त्रुटियों के निराकरण के लिए निम्नलिखित उपायों पर अमल किया जा सकता है।

लैथरोप (1969) के अनुसार, संचयी प्रमाण विधि के द्वारा प्रभाव शोध की त्रुटियों को दूर किया जा सकता है। उनके अनुसार विभिन्न प्रभाव अध्ययनों के माध्यम से कारणता का पता लगाया जा सकता है।

मोहसिन (1984) ने करलिंगर (1973) के विचार का समर्थन किया है और कहा है कि अधिक-से-अधिक सम्भावित परिकल्पनाओं के परीक्षण के आधार पर घटना के रूप में घटित आश्रित कारण के रूप में घटित होने वाले वास्तविक स्वतन्त्र चर या चरों का पता लगाया जा सकता है।
उनके अपने शब्दों में "प्रभाव शोध में स्वतन्त्र चर पर नियन्त्रण प्राप्त करने का एक मात्र उपाय बहुपरिकल्पना परीक्षण है।"



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